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Он делает то, что подбрасывает дьявол, искушением для тех, чьи сердца поражены недугом и чьи сердца ожесточены. Воистину, беззаконники находятся в полном разладе с истиной.
Пусть знают те, кому даровано знание, что это - истина от твоего Господа, чтобы они могли уверовать в него, а их сердца могли смиренно покориться ему. Воистину, Аллах наставляет верующих на прямой путь Сура аль-Хадж, 52-54
Слово «таманна», которое встречается в аяте, а так же слово «умнийятун» означают «чтение», как об этом сказали большинство толкователей Корана и исследователей Ислама. Ибн Касир привел это мнение от большинства, а ибн аль-Кайим сообщил о единогласном мнение в этом от саляфов (предшественников), и сказал в «Игъасату аль-лихфан», 1/93: «Саляфы – все они на том мнении, что смысл (аята) таков: когда читал он, то подбросил шайтан в его чтение». О чём так же сказал имам аль-Куртубий в своем тафсире, 12/83: «Сказал Сулейман ибну Харб, что частица «фи» в данном случае имеет смысл: «’инда» (рядом, вместе, около), то есть: «Подбросил шайтан в сердца неверных, в то время как читал посланник Аллаха, да благословит его Аллах и приветствует ….» Сказал ибн Джарир ат-Табарий, в тафсире, 17/121: «Аяты, о которых сообщил Всевышний Аллах, укрепляет Он их, нет сомнения, так как это аяты Писания. И так же известно, что шайтан подбрасывает в них, о чём сообщил Аллах, и сообщил Он, что стирает Он то, что подбрасывает шайтан, и делает негодным, а затем оставляет, утверждает прочно то, что от Него. И, следовательно, смысл аята будет: «И мы не посылали до тебя посланника и пророка, которые когда читали Книгу Аллаха, или передавали (хадисы), или говорили, чтобы шайтан не подкинул вместе с этим чтением Книги, или передачей хадиса или словами их. Но Аллах стирает то, что подбрасывает шайтан, и не сходит оно с языка пророка Его, и ложь (слов шайтана) становится понятной». Это и есть смысл данного аята (аятов), и мы видим, что в них разъясняется как шайтан во время, когда передается посланником Аллаха откровение, подбрасывает в сердца неверных свои сомнения. И так поступали враги Ислама во все времена, будь это до прихода Мухаммада, мир ему и благие приветствия, с другими посланниками и пророками, или же после его прихода. Но мусульманин должен знать шайтан никогда не мог и не сможет подобраться к Писанию Аллаха, и откровению, которое дано было Его пророку, так как они (Книга Аллаха и Сунна) под совершенной, божественной защитой.
Идем далее: Итак, имеется несколько версий данной истории (хадиса), которые ниже мы будут приведены в оригинале, чтобы желающий мог вернуться к ним в процессе нашей работы и посмотреть что ему необходимо. А далее, по порядку, будут указаны степени их достоверности:
1 ـ عن سعيد بن جبير قال: " لما نزلت هذه الآية: (أفرءيتم اللات والعزى) (النجم: 19) ، قرأها رسول الله صلى الله عليه وسلم فقال: " تلك الغرانيق العلى ، وإن شفاعتهن لترجى " فسجد رسول الله صلى الله عليه وسلم ، فقال المشركون: إنه لم يذكر آلهتهم قبل اليوم بخير ، فسجد المشركون معه ، فأنزل الله: (ومآ أرسلنا من قبلك من رسول..) إلى قوله: (عذاب يومٍ عقيمٍ) (الحج: 52 ـ 55). أخرجه ابن جرير (17 / 120) من طريقين عن شعبة عن أبي بشر عنه ، وهو صحيح الإسناد إلى ابن جبير ، كما قال الحافظ على ما يأتي عنه ، وتبعه السيوطي في " الدر المنثور " (4 / 366) ، وعزاه لابن المنذر أيضاً وابن مردويه بعد ما ساقه نحوه بلفظ: " ألقى الشيطان على لسانه: تلك الغرانيق العلى " الحديث ، وفيه:
" ثم جاءه جبريل بعد ذلك ، قال: اعرض علَّي ما جئتك به ، فلما بلغ: " تلك الغرانيق العلى ، وإن شفاعتهن لترجى " قال جبريل: لم آتك بهذا ، هذا من الشيطان! فأنزل الله: (ومآ أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي) (الحج: 52). وهكذا أخرجه الواحدي في " أسباب النزول " من طريق أخرى عن سعيد بن حسن ، كما سيأتي. رواه البزار في " مسنده " عن يوسف بن حماد عن أمية بن خالد ، عن شعبة ، عن أبي بشر ، عن سعيد بن جبير ، عن ابن عباس ـ فيما أحسبه ، الشك في الحديث ـ أن النبي صلى الله عليه وسلم قرأ بمكة سورة (النجم) حتى انتهى إلى قوله: (أفرءيتم اللات والعزى) (النجم: 19) ، وذكر بقيته ورواه الطبري من طريق سعيد بن جبير مرسلاً ، وأخرجه ابن مردويه من طريق أبي عاصم النبيل ، عن عثمان بن الأسود ، عن سعيد بن جبير ، عن ابن عباس نحوه ، ولم يشك في وصله ، وهذا أصح طرق الحديث. قال البزار... 2 ـ عن ابن شهاب: حدثني أبو بكر بن عبد الرحمن بن الحارث " أن رسول الله صلى الله عليه وسلم وهو بمكة قرأ عليهم: (والنجم إذا هوى) (النجم: 1) ، فلما بلغ (أفرءيتم اللات والعزى (19) ومناة الثالثة الأخرى (20)) (النجم) ، قال: " إن شفاعتهن ترتجى " سها رسول الله صلى الله عليه وسلم ، فلقيه المشركون الذين في قلوبهم مرض فسلموا عليه وفرحوا بذلك ، فقال لهم: إنما ذلك من الشيطان ، فأنزل الله: (ومأ أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي) حتى بلغ (فينسخ الله ما يلقي الشيطان) (الحج: 52).
3 ـ عن أبي العالية قال: قالت قريش لرسول الله صلى الله عليه وسلم إنما جلساؤك عبيد بني فلان ، ومولى بني فلان ، فلو ذكرت آلهتنا بشيء جالسناك ، فإنه يأتيك أشرف العرب ، فإذا رأوا جلساءك أشرف قومك كان أرغب لهم فيك ، قال: فألقى الشيطان في أمنيته ، فنزلت هذه الآية: (أفرءيتم اللات والعزى (19) ومناة الثالثة الأخرى (20)) (النجم) ، قال: فأجرى الشيطان على لسانه: " تلك الغرانيق العلى ، وشفاعتهن ترتجى ، مثلهن لا ينسى " قال: فسجد النبي صلى الله عليه وسلم حبن قرأها وسجد معه المسلمون والمشركون ، فلما علم الذي أجري على لسانه ، كبر ذلك عليه ، فأنزل الله: (ومآ أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي) إلى قوله (والله عليم حكيم) (52) (الحج).
4 ـ عن محمد بن كعب القرظي ، ومحمد بن قيس قالا: " جلس رسول الله صلى الله عليه وسلم في ناد من أندية قريش كثير أهله ، فتمنى يومئذ أن لا يأتيه من الله شيء فينفروا عنه ، فأنزل الله عليه: (والنجم إذا هوى (1) ما ضل صاحبكم وما غوى (2)) (النجم) فقرأها رسول الله صلى الله عليه وسلم حتى إذا بلغ: (أفرءيتم اللات والعزى (19) ومناة الثالثة الأخرى (20)) (النجم) ، ألقى عليه الشيطان كلمتين: " تلك الغرانيق العلى ، وإن شفاعتهن لترتجى " فتكلم بها ثم مضى ، فقرأ السورة كلها ، فسجد في آخر السورة ، وسجد القوم جميعاً معه ، ورفع الوليد بن المغيرة تراباً إلى جبهته فسجد عليه ، وكان شيخاً كبيراً لا يقدر على السجود ، فرضوا بما تكلم به ، وقالوا: قد عرفنا أن الله يحيي ويميت ، وهو الذي يخلق ويرزق ، ولكن آلهتنا هذه تشفع لنا عنده ، إذا جعلتَ لها نصيباً فنحن معك ، قالا: فلما أمسى أتاه جبريل عليه السلام فعرض عليه السورة ، فلما بلغ الكلمتين اللتين ألقى الشيطان عليه قال: ما جئتك بهاتين! فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: افتريت على الله ، وقلت ما لم يقل ، فأوحى الله إليه: (وإن كادوا ليفتنونك عن الذي أوحينآ إليك لتفتري علينا غيره) إلى قوله: (ثم لا تجد لك علينا نصيراً (75)) (الإسراء) ، فما زال مغموماً مهموماً حتى نزلت عليه: (ومآ أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي إلآ إذا تمنى...) (الحج: 52) ، قال: فسمع كل من المهاجرين بأرض الحبشة أن أهل مكة قد أسلموا كلهم ، فرجعوا إلى عشائرهم وقالوا: هو أحب إلينا ، فوجدوا القوم قد ارتكسوا حين نسخ الله ما ألقى الشيطان ".
5 ـ عن قتادة أن النبي صلى الله عليه وسلم كان يتمنى أن لا يعيب الله آلهة المشركين ، فألقى الشيطان في أمنيته فقال: " إن الآلهة التي تدعى ، إن شفاعتهن لترتجى ، وإنها لَلْغرانيق العلى " فنسخ الله ذلك ، وأحكم الله آياته: (أفرءيتم اللات والعزى (19) حتى بلغ (من سلطان) (النجم) ، قال قتادة: لما ألقى الشيطان ما ألقى ، قال المشركون: قد ذكر الله آلهتهم بخير ، ففرحوا بذلك ، فذكر قوله: (ليجعل ما يلقي الشيطان فتنة للذين في قلوبهم مرض) (الحج: 53). 6 ـ عن عروة ـ يعني ابن الزبير ـ في تسمية الذين خرجوا إلى أرض الحبشة المرة الأولى (قلت وفيه:) " فقال المشركون: لو كان هذا الرجل يذكر آلهتنا بخير ، أقررناه وأصحابه ، فإنه لا يذكر أحداً ممن خالف دينه من اليهود والنصارى بمثل الذي يذكر به آلهتنا من الشتم والشر ، فلما أنزل الله (عز وجل) السورة التي يذكر فيها: (والنجم) وقرأ: (أفرءيتم اللات والعزى (19) ومناة الثالثة الأخرى (20)) (النجم) ، ألقى الشيطان فيها عند ذلك ذكر الطواغيت فقال: " وإنهن لَمِنَ الغرانيق العُلى ، وإن شفاعتهم لتُرتجى " وذلك من سجع الشيطان وفتنته ، فوقعت هاتان الكلماتان في قلب كل مشرك وذلت بها ألسنتهم ، واستبشروا بها ، وقالوا: إن محمداً قد رجع إلى دينه الأول ودين قومه ، فلما بلغ رسول الله صلى الله عليه وسلم آخر السورة التي فيه (النجم) سجد وسجد معه كل من حضره من مسلم ومشرك ، غير أن الوليد بن المغيرة ـ كان رجلاً كبيراً ـ ، فرفع مِلْءَ كفه تراباً فسجد عليه ، فعجب الفريقان كلاهما من جماعتهم في السجود لسجود رسول الله صلى الله عليه وسلم ، فأما المسلمون فعجبوا من سجود المشركين من غير إيمان ولا يقين ، ولم يكن المسلمون سمعوا الذي ألقى الشيطان على ألسنة المشركين ـ وأما المشركون فاطمأنت أنفسهم إلى النبي صلى الله عليه وسلم ] وأصحابه لما سمعوا الذي ألقى الشيطان في أمنتة النبي صلى الله عليه وسلم [ وحدثهم الشيطان أن النبي صلى الله عليه وسلم قد قرأها في (السجدة) ، فسجدوا لتعظيم آلهتهم ، ففشت تلك الكلمة في الناس وأظهرها الشيطان حتى بلغت الحبشة.. فكَـبُـرَ ذلك على رسول الله صلى الله عليه وسلم فلما أمسى أتاه جبريل ] عليه السلام ، فشكا إليه ، فأمره فقرأ عليه ، فلما بلغها تبرأ منها جبريل عليه السلام [ وقال: معاذ الله من هاتين ، ما أنزلهما ربي ، لا أمرني بهما ربك!! فلما رأى ذلك رسول الله صلى الله عليه وسلم شق عليه ، وقال: أطعتُ الشيطان ، وتكلمتُ بكلامه وشركني في أمر الله ، فنسخ الله ] عز وجل [ ما ألقى الشيطان ، وأنزل عليه: (ومآ أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي) إلى قوله: (لفي شقاق بعيد (53)) (الحج). فلما برأه الله عز وجل من سجع الشيطان وفتنته انقلب المشركون بضلالهم وعداوتهم ". 7 - عن صالح قال: "قام رسول الله صلى الله عليه وسلم فقال المشركون: إن ذكر آلهتنا بخير ذكرنا إلهه بخير، فألقى في أمنيته: (أفرئيتم اللات و العزى * ومناة الثالثة الأخرى) [النجم]، "إنهن لفي الغرانيق العلى و إن شفاعتهن لترتجى" قال: فأنزل الله (و ما أرسلنا من قبلك من رسولٍ و لا نبيٍ...) الآية [الحج:52]. أخرجه عبد حُميد كما في "الدر" (4/366 من طريق السدي عنه، و أخرجه ابن أبي حاتم السدي لم يتجاوزه بلفظ: "قال: خرج النبي صلى الله عليه و سلم إلى المسجد ليصلي فبينما هو يقرأ، إذ قال: (أفرئيتم اللات و العزى * و مناة الثالثة الأخرى) [النجم]، فألقى الشيطان على لسانه فقال: "تلك الغرانيق العلى، و إن شفاعتهن لترتجى" حتى إذا بلغ آخر السورة سجد و سجد أصحابه، و سجد المشركون لذكر آلهتهم فلما رفع رأسه حملوه فاشتدوا به قطري مكة يقولون: نبي بني عبد مناف، حتى إذا جاء جبريل عرض عليه فقرأ ذينك الحرفين، فقال جبريل: معاذ الله أن أكون أقرأتك هذا! فاشتد عليه، فأنزل الله يطيب نفسه: (و ما أرسلنا من قبلكَ...) الآية [الحج:52] 8 - عن الضحاك قال: في قوله (وما أرسلنا من قبلك من رسولٍ و لا نبيٍ) الآيه [الحج:52] فإن نبي الله صلى الله عليه و سلم و هو بمكه أنزل الله عليه في آلهة العرب، فجعل يتلو اللات و العُزّى، و يُكثر من ترديدها، فسمع أهل مكه النبي صلى الله عليه و سلم يذكر آلهتهم، ففرحوا بذلك، و دنوا يستمعون، فألقى الشيطان في تلاوة النبي صلى الله عليه و سلم: "تلك الغرانيق العلى، و منها الشفاعة ترتجى" فقرأها النبي صلى الله عليه و سلم كذلك، فأنزل الله عليه: (وما أرسلنا من قبلك من رسولٍ و لا نبيٍ) إلى قوله: (و الله عليمٌ حكيمٌ*52*) [الحج]. 9 - عن محمد بن فضالة الظفري، و المطلب بن عبدالله بن حنطب قالا: "رأى رسول الله صلى الله عليه و سلم من قومه كفّاً عنه، فجلس خالياً، فتمنى فقال: ليته لا ينزل عليّ شيء ينفّرهم عني، و قارب رسول الله صلى الله عليه و سلم قومه، و دنا منهم، و دنوا منه، فجلس يوماً مجلساً في ناد من تلك الأندية حول الكعبة، فقرأ عليهم (و النجم إذا هوى (1)) [النجم]، حتى إذا بلغ: (أفرأيتم الاّت و العزى(19) و مناة الثالثة الأخرى(20)) [النجم]، ألقى الشيطان كلمتين على لسانه: "تلك الغرانيق العلى، و إن شفاعتهن لترتجى"، فتكلم رسول الله صلى الله عليه و سلم بهما ثم مضى، فقرأ السورة كلها، و سجد و سجد القوم جميعاً، و رفع الوليد بن المغيرة تراباً إلى جبهته فسجد عليه، و كان شيخاً كبيراً لا يقدر على السجود، و يقال: إن أبا أحيحة سعيد بن العاص أخذ تراباً فسجد عليه رفعه الى جبهته، و كان شيخاً كبيراً، فبعض الناس يقول: إنما الذي رفع التراب الوليد، و بعضهم يقول: أبو أحيحة، و بعضهم يقول: كلاهما جميعاً فعل ذلك. فرفضوا بما تكلم به رسول الله صلى الله عليه و سلم و قالوا قد عرفنا أن الله يحيي و يميت، و يخلق و يرزق، و لكن آلهتنا هذه تشفع لنا عنده، و أما إذ جعلت لها نصيباً فنحن معك، فكبُر ذلك على رسول الله صلى الله عليه و سلم من قولهم، حتى جلس في البيت، فلما أمسى أتاه جبريل عليه السلام، فعَرَض عليه السورة فقال جبريل: جئتك بهاتين الكلمتين؟!! فقال رسول الله صلى الله عليه و سلم: قُلـتُ على الله ما لم يقل ، فأوحى الله إليه: (و إن كادوا ليفتنونك عن الذي أوحينا إليك لتفتري علينا غيره و إذاً لا تخذوك خليلاً (73) و لولا أن ثبتناك لقد كِدت تركنُ إليهم شيئاً قليلاً (74) إذاً لأذقناك ضعفَ الحياة و ضعفَ المماتِ ثمّ لا تجدُ لك علينا نصيراً (75)) [الإسراء]. 10 - عن ابن عباس أن رسول الله صلى الله عليه و سلم قرأ سورة (النجم) و هو بمكة، فأتى على هذه الآية (أفرأيتم اللات و العزى (19) و مناة الثالثة الأخرى (20)) [النجم] فألقى الشيطان على لسانه "أنهن الغرانيق العلى" فأنزل الله: (و ما أرسلنا من قبلك...) الآية [الحج: 52]
1 – от Са’ид ибн Джубейра, 3-4 версии, все они являются «мурсаль» (дословно - «подвешенными», когда таби’ин передает от посланника Аллаха, мир ему и благие приветствия), а хадисы «мурсаль» из разряда слабых (да’ыйф) хадисов) 2 – от ибн Шихаб аз-Зухрий, тоже «мурсаль» 3 – от абу аль-‘Аалии, тоже «мурасаль» 4 – от Мухаммада ибн Ка’б аль-Куразый, пару версий, слабые (да’ыйф) 5 – от Къатады, «мурсаль» 6 – от ‘Уруы ибн аз-Зубейр, «мурсаль» 7 – от абу Салиха, хадис слабый, а то, что передается от него, от ибн ‘Аббаса, якобы от пророка, то эти версии выдуманные (мауду’) 8 – от Даххака, так же слабый хадис (да’ыйф) 9 – от Мухаммада ибн Фадаля аз-Зуфрий, очень слабый (да’ыйф джиддан) 10 – от ибн ‘Аббаса, да будет доволен им Аллах, 3 версии хадиса, все они слабые (да’ыйф)
Итак, как мы видим, все версии, которые имеются в нашей истории, все они слабые, самая высокая из этих слабых версий – это хадисы «мурсаль», как об этом сказал и сам ибн Хаджар. Это что касается иснада хадисов, иснада этой истории. Не говорили о достоверности ее никто из имамов Сунны, ни те, кто написали сборники «сунан», ни имам Ахмад, ни другие. (См. «мухтасыр фи сийрати хайриль-бария», шейха Таха ‘абдуль-Максуда, стр. 150) Так же на слабость её, её лживость указывает то, что есть в ней из противоречий, отвергаемых вещей, которые никак не могут быть приписаны пророчеству и посланию, из этих вещей следующее: 1 – то, что шайтан говорит языком пророка, мир ему и благие приветствия, восхваляя идолов, а это не может быть, так как послание под защитой Аллаха, и то, что говорит пророк – это откровение Аллаха 2 – то, что в версиях хадиса есть противоречия, а именно, в 4-ой версии, например, говорится, что верующие приняли эти слова от пророка, поверили, что это от Аллаха, и не было у них капли сомнения и не спросили они об этом у пророка, мир ему и благие приветствия, и не увидели в этом ошибки. То есть услышали это и не поняли что это от шайтана, напротив, уверовали, что это откровение от Господа. Это явное противоречие версии хадиса под номером 6, в которой говориться, что верующие не слышали подброшенного шайтаном, в отличие от многобожников: «И мусульмане не слышали того, что подбросил шайтан». 3 – то, что в версиях 1, 4, 7, 9 говорится о том, что пророк, мир ему и благие приветствия, оставался какое-то время, не зная, что это было подброшено шайтаном, до тех пор, пока Джибриль не сообщил ему и не сказал: «Да упасет Аллах! Я не пришел к тебе с этим, это от шайтана!» Это явное отклонение от сути послания, явная ложь. Не мог посланник Аллаха, мир ему и благие приветствия, не различать между словами Джибриля и словами шайтана. 4 – то, что после того, как он, мир ему и благие приветствия, якобы сказал это, забыл, и пребывал какое-то время в таком состояние, пока Джибриль не напомнил ему (См. версию хадиса номер 2). Это не может быть с посланником Аллаха, тем более в том, что касается откровения 5 – то, что это было подброшено ему (пророку) во время молитвы. То есть получается он, да благословит его Аллах и приветствует, прочитал это, поклоняясь Аллаху: «Это журавли (чайки) высочайшие, и поистине заступничество их желаемое» (См. версию 10/4) 6 - то, что в версиях 4, 5, 9 говориться: «И он (мир ему и благие приветствия) надеялся, что не будет ему ниспослано из откровения то, что будет порочить божества многобожников, чтобы они не отдалились от него»!!! Шейх абу Бакр ибн аль-‘Арабий, да будет милостив к нему Аллах, хорошо ответил на это, сказав: «Размышляйте же, да откроет Аллах ваш разум, над теми, кто передал эти хадисы, а ведь они по невежеству своему, не зная стали врагами Исламу. И из этой вражды их (переданное ими) от пророка, мир ему и благие приветствия, что он, находясь вместе с многобожниками-курайшитами, желал, чтобы не ниспосылалось ему от Аллаха откровение (в отношении них). Как же может тот, у кого есть хотя бы кусочек разума, подумать, что пророк, мир ему и благие приветствия, хотел сохранить связь со своим народом, променяв её на связь с Господом своим?! Что он желал сохранить отношение, общение со своим родом, и не желал, чтобы откровения от Аллаха разорвали их, а ведь откровения были источником жизни его, источником его тела и сердца….А ведь он, да благословит его Аллах и приветствует, был самым трепетным из всех в отношение ниспосланного ему, и когда приходил Джибриль, он устремлялся к благу быстрее ветра!» (См. тафсир «ахкам аль-Куран» ибн аль-‘Араби) 7 – то, что в версиях 4, 6, 9 приводится от него, да благословит его Аллах и приветствует, якобы он сказал, после того, как Джибриль указал ему на ошибку: «Я оклеветал Аллаха, сказал то, что Он не говорил, шайтан был соучастником со мной в этом (откровении)!!» Это все не подобает посланнику Аллаха, и обязательно нам отрицать это от него, да благословит его Аллах и приветствует.
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